विचारों
की रस्सी अब खुलते नहीं बनती,
अनुभव के
कांटें अब निकलते नहीं बनते,
बड़े मजबूर
हैं हम...
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मन के
पत्थर अब हिलते नहीं बनते,
सीने की
कीलें अब निकलते नहीं बनती,
बड़े मजबूर
हैं हम...
किताबों
का कीचड अब धुलते नहीं हटता,
समाज के छींटे अब मिटाते नहीं मिटते,
बड़े मजबूर
हैं हम...
मोहब्बत
की धरकन अब चलते नहीं बनती,
नफरत की
सासें अब थमते नहीं थमती,
बड़े मजबूर
हैं हम...
अविश्वास के चीथड़े लपेटे नहीं उतरते,
जीवाह की
गंदगी अब धुलते नहीं बनती,
बड़े मजबूर
हैं हम...
वो बचपन
की हँसी अब ढूंढें नहीं मिलती,
अभावों
का जीवन अब खेल नहीं दिखता,
बड़े मजबूर
हैं हम...
अहम् की
दीवारें अब गिरते नहीं गिरती,
वहम का
कोहरा अब तूफानों से नहीं हटता,
बड़े मजबूर
हैं हम...
सही गलत
का कचरा अब फिकते नहीं फिकता,
मान्यताओं
की बदबू अब जाते नहीं बनती,
बड़े मजबूर
हैं हम...
-
प्रतीक नेगी